जीजीविषा - 1 KAMAL KANT LAL द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जीजीविषा - 1

कीमती जीन्स, टी शर्ट, एक हाथ में खालिस लेदर की बैग और दूसरे में अपना कीमती मोबाईल फोन लेकर जब अविनाश रेलवे के ए. सी. वेटिंग रूम के सामने पहुँचा तो कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि वह पूरी तरह कड़का है. वह एक नौकरी के लिए इंटरव्यू देने आया था और उसके पास टैक्सी करने का भी पैसा नहीं था.

अटेंडेंट ने उसकी साहबी ठाठ से प्रभावित होकर उसकी टिकट जाँच किए बिना उसके लिए अदब से दरवाजा खोल दिया. नॉन ए. सी. में सफर करने वाले अपनी सूरत और हाव-भाव से ही पहचाने जाते हैं, जिन्हें वह दरवाजे पर ही रोक लेता है. अविनाश उसपर एक उड़ती हुई नजर डालकर अंदर चला गया. एक खाली कुर्सी तलाश करके उसने अपना बैग उसपर रखा और बगल वाली खाली कुर्सी पर पैर पर पैर चढ़ाकर ऐसे बैठ गया जैसे यह उसका ड्राईंग रूम हो.

अभी दो महीने पहले ही वह एक बड़ी सी कंपनी में सीनियर मैनेजर था. उसकी कंपनी का अचानक एक अन्य कंपनी के साथ विलय हो गया था. अधिकांश लोगों की छंटनी हो गई और रातों रात वह भी अन्य कर्मचारियों के साथ सड़क पर आ गया था. घर का लोन, बच्चों की स्कूल की फीस, जीवन बीमा की किश्तें और घर का खर्च चलाने का श्रोत अचानक सूख गया था. जब इंटरव्यू के लिए कॉल आया तो वह बड़ी दुविधा में था. आने जाने का किराया और अन्य खर्चों के लिए क्या अपनी कीमती घड़ी ओ. एल. एक्स पर बेच दे? लेकिन नौकरी मिलने की संभावना कम ही दिख रही थी. बेरोजगारों की भीड़ में किस्मत किसका साथ देगी कहना मुश्किल था. इंटरव्यू के लिए पैसे जाया करना बुद्धिमानी नहीं थी. पास में पैसे नहीं थे तो क्या हुआ, अभी उसके कपड़ों, जूतों और ट्रैवल बैग की चमक बरकरार थी. बेरोजगारी की लाचारी को चेहरे से झटक कर ऊपरी चमक-दमक के बल पर इंटरव्यू में जाने-आने की कोई न कोई जुगत भिड़ा लेने के आत्मविश्वास के साथ वह चल पड़ा था. रात के अंधेरे में उसने जेनरल बॉगी में इस शहर तक का सफर चंद रुपये खर्च करके कर लिया था. आगे उसका आत्मविश्वास उसके साथ था.

थोड़ी देर अपने मोबाईल से खेलने के बाद वह उठा और शेविंग किट और टॉवल लेकर बाथरूम में चला गया. अगले बीस मिनट में वह शर्ट, टाई, फॉर्मल पैंट और कोट पहनकर इंटरव्यू के लिए पूरी तरह तैयार था. उसने परफ्यूम की बोतल निकालकर कॉलर के नीचे दो-चार पफ मारे, पैर में पहने मोजे से ही लेदर के कीमती जूतों को साफ किया और चलने के लिए उठ खड़ा हुआ. अटेंडेंट ने उसको दरवाजे की तरफ आते देख कर अदब से दरवाजा खोला और कुछ टिप मिल जाने की आशा में उसके चेहरे की ओर देखा. अविनाश ने हल्की मुस्कान के बीच धीमे से थैंक यू कहा और बाहर निकल गया. अटेंडेंट बिना किसी शिकायत के वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया. बड़े साहब ऐसे ही होते हैं. खुश हो जाएँ तो सौ-दो सौ का नोट थमा देते हैं. वरना पूरी तरह अनदेखी कर देते हैं, जैसे उसका उनकी दुनिया में कोई वजूद ही न हो. अविनाश ने कम से कम मुस्कुरा कर उसे थैंक यू कहा था. वह इसी से संतुष्ट हो गया था.

स्टेशन से बाहर आकर अविनाश ने गूगल मैप पर ऑफिस की दूरी देखी – 2.4 किलो मीटर. सुबह का समय था. धूप तेज नहीं थी. अगर होती, तब भी वह ये दूरी पैदल ही तय करने वाला था. वह चल पड़ा. 2.4 कि. मी. की दूरी इतनी लंबी होगी इस बात का अंदाजा उसे नहीं था. ऑफिस के विशाल इमारत में प्रवेष करते ही ए. सी. की ठंडक ने उसकी थकान को राहत पहुँचाई. उसने रिसेप्शन पर अपना नाम लिखवाया और सीधा वॉश रूम चला गया. पसीना सुखा कर, चेहरा-मोहरा दुरुस्त करके और फिर से शर्ट-टाई व्यवस्थित करके वह बाहर आया और एक कुर्सी पर आराम से बैठ गया. दो लोग उससे पहले से आकर बैठे हुए थे. उसने उनपर एक उचटती निगाह डाली और चेहरे पर ढेर सारा आत्मविश्वास पोत कर वह वहाँ पड़ी मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगा.

उसे भूख लग आई थी. उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई. अक्सर इंतजार कर रहे कैंडिडेट्स के लिए चाय-बिस्किट का इंतजाम रहता है. लेकिन अभी इंटरव्यू शुरू होने में वक्त था. उसने सायास अपने चेहरे पर भूख की झलक को आने से रोक रखा था. वह उठकर रिसेप्शन पर गया और उसने अंग्रेजी में पूछा कि कितनी देर में इंटरव्यू शुरू होगी. उसे बताया गया कि अभी काफी वक्त था. लेकिन उसे जोरों की भूख लगी थी. कम से कम चाय तो होनी ही चाहिए थी. उसने जिज्ञासा वश पूछने का स्वांग किया – माफ कीजिएगा, आपके यहाँ गेस्ट के लिए टी-कॉफी डिस्पेंसर नहीं है? एक तरह से वह यह भी बताना चाह रहा था कि उसकी हैसियत ऐसी कंपनी में काम करने की है जहाँ ऐसी सुविधाएँ आम होती हैं. उसके मुकाबले यह कंपनी थोड़ी छोटी जान पड़ती है.

रिसेप्शन पर खड़े लड़के ने शालीनता के साथ अंग्रेजी में खेद प्रगट किया – सॉरी सर, इसी बिल्डिंग की बेसमेंट में रेस्ट्रॉं है. आपको वहाँ चाय मिल जाएगी.

रेस्त्रां में चाय क्या मुफ्त में मिलेगी? फिर भी उसने उसे धन्यवाद दिया और दिखावे के लिए लिफ्ट से बेसमेंट में आ गया. इक्का-दुक्का लोग वहाँ बैठे खा-पी रहे थे. उसने काँच की रैक के अंदर सजी खाने पीने की चीजों को देखा. डो-नट देखकर उसकी भूख और तेज हो गई. लेकिन उसने ऐसे मुँह बिचकाया जैसे उसकी पसंद की कोई चीज वहाँ नहीं हो. तभी काउंटर के पीछे से एक सिर उभरा और उसने अंग्रेजी में पूछा, “कुछ चाहिए सर?”

उसने अभिजात्य रौब के साथ कहा, “देख रहा हूँ.”

वह लड़का चला गया. अविनाश एक चक्कर लगाकर रुका और अचानक अपनी मोबाईल निकालकर व्यस्त हो गया. देखने वाले को यही लग सकता था कि कोई महत्वपूर्ण मैसेज आया है, जिसे वह पढ़ रहा है. फिर वह मुड़ा और लिफ्ट की ओर बढ़ा. तभी कनखियों से उसे ठंडे पानी वाली मशीन दिखाई दी. वह रास्ता बदल कर मशीन के पास पहुँच गया और वहाँ रखी डिस्पोज़ेबल ग्लास से तीन ग्लास ढंडा पानी पीकर उसको थोड़ी राहत मिली. लिफ्ट में सवार होने के बाद उसने अपनी पीठ थपथपाई कि किसी को भी इस बात की भनक नहीं लगी कि वह केवल विंडो शॉपिंग के लिए रेस्त्रां के चक्कर लगाने गया था. कुछ भी खरीद कर खाने का न तो उसका इरादा था और न आज के दिन उसकी हैसियत ही थी.

वापस आने पर उसने देखा कई लोग इंटरव्यू के लिए आ चुके थे. लोग एक के बाद एक लगातार आते जा रहे थे. कमरे में रखी गई कुर्सियाँ कम पड़ने वाली थीं. अविनाश ने एक कुर्सी पर कब्जा जमाया और शांति से बैठ गया. अगले आधे घंटे में पूरा कमरा भर गया था. कुछ लोगों को दीवार का सहारा लेकर खड़ा होना पड़ा था. एक वेकेंसी के लिए इतने सारे लोगों को कंपनी ने छांट कर बुलाया था? इसका मतलब साफ था कि जितने भी लोग आए थे, सभी के सभी रिक्त पद पर काम करने की योग्यता रखते थे.

अविनाश एक सिरे से एक-एक कर सारे उम्मीदवारों का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगा. वह देखना चाहता था कि कौन था जो नौकरी के लिए उसके मुकाबले ज्यादा जरूरतमंद दिखाई पड़ रहा था और वो कौन-कौन लोग थे, जो अच्छी सैलरी पैकेज की उम्मीद में आए थे. उसे लगा कि सारे उम्मीदवार ऐसे ही थे, जो अच्छी पैकेज नहीं मिलने पर नौकरी की ऑफर ठुकरा कर चले जाने वाले थे. असके मन के अंदर उम्मीद का अंकुर फूटा – क्या आज उसे नौकरी मिल जाएगी? उसके होठों पर एक मुस्कान नाचने को बेताब हो उठी. उसने बड़ी मुश्किल से उसे दबाया.

फिर उसने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि सारे के सारे अच्छी पैकेज की तलाश में आए हों? कहीं सारे लोग अपने चेहरों पर बनावटी बेफिक्री का भाव तो नहीं बनाए हुए थे? अविनाश डर गया. यह सोचकर कि कहीं उसके चेहरे पर नौकरी पाने की फिक्र झलक तो नहीं रही थी. यह एक खतरनाक बात हो सकती थी. इंटरव्यू बोर्ड के मेंम्बर आसानी से ताड़ जाते हैं. कम से कम पैकेज में नौकरी के लिए मनाने में उनको महारत हासिल होती है. उसने जल्दी-जल्दी जबड़ा चलाकर चेहरे के हाव-भाव को दुरुस्त किया. आँखों पर अभिजात्य गर्व का चश्मा चढ़ाया और तन कर बैठ गया. जरा भी असावधान हो जाने पर मध्यम वर्गीय बेचारगी का स्थाई भाव उसके व्यक्तित्व पर हावी हो जाता था.

ख़ैर, इंटरव्यू शुरू हुआ. पहले उम्मीदवार ने काफी वक्त अंदर बिताया. अविनाश को चिंता होने लगी कि कहीं वह चुन तो नहीं लिया गया? पहला उम्मीदवार बाहर निकला और बिना किसी की ओर देखे चला गया. दूसरे का नाम जब पुकारा गया तब एक महिला चाय की ट्रे लेकर हॉल में आई. उसके पीछे एक ऑफिस बॉय के हाथ में बिस्किट की ट्रे थी. देखते ही अविनाश की आँतें कुलबुलाने लगीं. लेकिन वह जानता था कि अगला नाम उसी का पुकारा जाने वाला था. चाय और बिस्किट सर्व किया जा रहा था. लेकिन उसने अपना ध्यान उनपर से हटाकर इंटरव्यू के अपने परफॉर्मेंस पर केंद्रित किया.

दूसरा उम्मीदवार जल्दी ही बाहर आ गया. अपना नाम पुकारे जाने पर अविनाश बिना कोई हड़बड़ी दिखाए अपनी कुर्सी से उठा और दरवाजे में घुसने से पहले उसने एक उड़ती निगाह सर्व होती चाय-बिस्किट पर डाली और मन ही मन अनुमान लगाया कि इंटरव्यू के बाद उसके हिस्से की चाय-बिस्किट बचेगी कि नहीं. फिर उसने इस विचार को दिमाग से झटका और कमरे के अंदर चला गया. पहले हुए टेलिफोनिक इंटरव्यू के बाद अब फेस टू फेस इंटरव्यू के लिए वह पूरी तरह तैयार था. अविनाश के अनुसार उसका इंटरव्यू अच्छा ही गया. लेकिन उन्होंने पैकेज की कोई बात नहीं की.

बाहर निकल कर अविनाश की आँखें चाय-बिस्किट वाले को तलाशने लगीं. वह महिला और वह ऑफिस बॉय कहीं नजर नहीं आए. निराश होकर वह हॉल से बाहर निकल गया. देखा दोनों चाय-बिस्किट की ट्रे लिए लिफ्ट के पास खड़े थे. अविनाश ने तेजी से कदम बढाए और एक चौड़ी मुस्कान उनकी ओर फेंक कर उसने पाँच-छः बिस्किट और एक कप चाय उठा ली. बड़े लोग मुफ्त का माल उड़ाने में शर्माते नहीं है, यह बात वह जानता था. दोनों कर्मचारियों को भी इसमें कुछ अजीब नहीं लगा. लिफ्ट का दरवाजा खुलने पर वे उसमें समा गए.

अविनाश ने खा-पी कर हाथ झाड़े. अपनी टाई खोलकर उसे बैग में रखा और इमारत से बाहर निकल आया. बाहर धूप कड़ी हो चुकी थी. लेकिन अब पेट में कुछ अनाज पड़ जाने के बाद उसमें वापस रेलवे स्टेशन तक जाने की ताकत आ चुकी थी. वह चल पड़ा.

स्टेशन पहुँचते-पहुँचते वह पसीने से नहा चुका था. उसे बड़ी जोरों की भूख लगी थी. जब जेब में पैसे न हों तो जल्दी भूख लग जाती है. वह रेलवे के कैंटीन में जाकर बैठ गया. पर्स निकाल कर देखा तो मुश्किल से वापसी का जेनरल टिकट खरीदने लायक पैसे बचे थे. डेबिट कार्ड में पैसा नयूनतम बैलेंस को छू रहा था और क्रेडिट कार्ड देखते ही बदन में झुरझुरी आ जाती थी. उसने पिछले महीने बाध्य होकर मकान का ई. एम. आई और जीवन बीमा की किश्त चुकाने के लिए ढेर सारा पैसा उधार ले लिया था, जिसकी ई. एम. आई. भरने का भी वक्त करीब आ रहा था.

भूख बर्दाश्त से बाहर हो रही थी. लेकिन अगर उसने पास के पैसे खाने में खर्च कर दिए तो फिर रेल का किराया नहीं बचेगा. एक बार तो उसने पानी पीकर उठ जाने की सोची. लेकिन उसके आत्मविश्वास ने उसे वहीं बिठाए रखा. अभी तो पेट भर खा लेना चाहिए. बाद में कोई न कोई जुगत भिड़ जाएगी. उसने निरामिश थाली का ऑर्डर दिया और दो मिनट में सारा कुछ चट कर गया. पानी की नई बोतल खरीदने की जगह उसने स्टील की गिलास में परोसा गया पानी पिया और पैसे देकर बाहर निकल आया. कैंटीन वाले को जो सोचना है वह सोचता रहे. इस शहर में कौन उसे पहचानने वाला था?

क्रमशः

लौटने का रेल किराया पास न होने के बाद अविनाश क्या अपने शहर लौट पाएगा? - अगली किश्त में पढें